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यत्र॑ दे॒वाँ ऋ॑घाय॒तो विश्वाँ॒ अयु॑ध्य॒ एक॒ इत्। त्वमि॑न्द्र व॒नूँरह॑न् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yatra devām̐ ṛghāyato viśvām̐ ayudhya eka it | tvam indra vanūm̐r ahan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र॑। दे॒वान्। ऋ॒घा॒य॒तः। विश्वा॑न्। अयु॑ध्यः। एकः॑। इत्। त्वम्। इ॒न्द्र॒। व॒नून्। अह॑न् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:30» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) तेजस्वी राजन् (एकः) एक (इत्) ही (त्वम्) आप (यत्र) जहाँ (विश्वान्) सम्पूर्ण (देवान्) विद्वानों को (ऋघायतः) बाधते हुए (वनून्) अधर्म्म के सेवन करनेवालों का (अहन्) नाश करें, वहाँ शत्रुओं से (अयुध्यः) नहीं युद्ध करने योग्य अर्थात् शत्रुजन आप से युद्ध न कर सकें, ऐसे होवें ॥५॥
भावार्थभाषाः - जब-जब दुष्टजन श्रेष्ठों को बाधा देवें, तब-तब आप सम्पूर्ण अधर्म्मियों को अत्यन्त दण्ड दीजिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! एक इदेव त्वं यत्र विश्वान् देवानृघायतो वनूनहंस्तत्र शत्रुभिरयुध्यो भवेः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) (देवान्) विदुषः (ऋघायतः) बाधमानान् (विश्वान्) (अयुध्यः) योद्धुमनर्हः (एकः) (इत्) एव (त्वम्) (इन्द्र) (वनून्) अधर्म्मसेविनः (अहन्) हन्याः ॥५॥
भावार्थभाषाः - यदा यदा दुष्टाः श्रेष्ठान् बाधन्तां तदा तदा त्वं सर्वानधर्मिणो भृशं दण्डय ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - (हे राजा) जेव्हा जेव्हा दुष्ट लोक श्रेष्ठांना त्रास देतात तेव्हा तेव्हा तू संपूर्ण अधार्मिक लोकांना दंड दे ॥ ५ ॥